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ईस्ट इंडिया कंपनी का इतिहास

             

ईस्ट इंडिया कंपनी

1600 के करीब अंग्रेज भारत में व्यापार करने के मकसद से आए थे।13 दिसम्बर 1600 को इंग्लैंड के कुछ व्यापारियों ने लंदन में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की थी। इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने इस कंपनी को 15 वर्ष (बाद में इसे बढ़ाकर 21 वर्ष कर दिया गया) के लिए पूर्व एशिया के देशों के साथ व्यापार करने का अधिकार दिया था। इसका मतलब था कि इंग्लैंड की इसी कंपनी को भारत से व्यापार करने का अधिकार था। इस तरह कंपनी भारत से चीजें खरीदकर यूरोप में ज्यादा कीमत पर बेचती थी। उस वक्त भारत में मुगल शासन की केंद्रीय सत्ता कमजोर होने लगी थी और उनकी जगह अनेक छोटे-बड़े राज्य अस्तित्व में आने लगे थे। वे ताकतवर नहीं थे, लेकिन हमेशा अपने पड़ोसी राज्यों के साथ युद्ध करते रहते थे। इन्हीं परिस्थितियों का फायदा कंपनी ने उठाया।


ईस्ट इंडिया कंपनी का विस्तार

                        इंग्लैंड की  ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में कई जगहों जैसेेे सूरत, मछलीपट्टनम, हुगली, पटना, कासिम बाजार  आदि जगहों पर अपनी फैक्ट्रियों की स्थापना की। बंगाल में पहली अंग्रेजी फैक्ट्री 1651 ई. में हुगली नदी के किनारे शुरू हुई। व्यापार में वृद्धि होने के साथ-साथ इसकेे चारों ओर  कंपनी के अधिकारी और व्यापारी भी बसने लगे। धीरे-धीरे कंपनी ने इस आबादी के चारों तरफ एक किला बनाना शुरू किया। इस किले का नाम फोर्ट विलियम रखा गया।

              
                     पलासी का युद्ध

पलासी का युद्ध

                          बंगाल मुगल साम्राज्य का एक धनी और बड़ा प्रांत था। इसमें आधुनिक बिहार और उड़ीसा भी शामिल थे। तब इन राज्यों का विभाजन नहीं हुआ था। उस वक्त बंगााल के नवाब सिराजुद्दौला थे। 1717 ई. के एक शाही फरमान के अनुसार कंपनी ने मुगल सम्राट से ₹3000 वार्षिक कर के बदले बिना कोई अन्य कर दिए बंगाल में व्यापार करने की अनुमति ले ली थी। बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को यह व्यवस्था पसंद नहीं आई। उन्होंने इसका विरोध किया, तथा कंपनी को बिना शुल्क व्यापार करने से मना कर दिया। कंपनी के किले बंदी के विस्तार पर रोक लगा दी। इसके परिणाम स्वरूप जून 1757 ई. में मुर्शिदाबाद के पास पलासी का युद्ध हुआ, इस युद्ध में नवाब (सिराजुद्दौला) की सेना हार गई, तथा सिराजुद्दौला मारा गया। अंग्रेजों ने सिराजुद्दौला के सेनापति (मीर जाफर) को बंगाल का नवाब बना दिया।                            
                                अंग्रेज पलासी के युद्ध की विजय के बाद अगर चाहते तो वहां के नवाब बन सकते थे। परंतु उन्होंने शासन चलाने के पचड़े से बचकर व्यापार करने तथा धन कमाने की ओर ध्यान दिया 18वीं सदी की शुरुआत से ही भारत में कंपनी का व्यापार बढ़ता जा रहा था। कंपनी ने आगे मराठों की ओर ध्यान देना शुरू किया तब मराठे आपस में बंटे हुए थे, कंपनी के अधिकारियों ने  उनके आपसी लडाई  का फायदा उठाया और सन् 1817- 19 के युद्ध में मराठे पूरी तरह पराजित हुए। तथा मराठों का क्षेत्र भी कंपनी के प्रभावाधीन हो गया।  
        
      
ईस्ट इंडिया कंपनी की विलय नीति

  कंपनी ने अन्य राज्यों पर नियंत्रण पाने के लिए 'विलय नीति' अपनाई। इस नीति के अंतर्गत अगर किसी शासक की मृत्यु हो जाती थी, और उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं होता तो, उसके राज्य को कंपनी अपने नियंत्रण में ले लेती थी। इस नीति के तहत 1848-56 ई. के बीच भारत के कई राज्य सतारा,सबलपुर,उदयपुर, नागपुर और झांसी कंपनी के नियंत्रण में आ गए थे। इस प्रकार 1856 ई. तक लगभग संपूर्ण भारत पर कंपनी का नियंत्रण हो चुका था।

           
          सैनिक विद्रोह (1857-58) 
 
   सन् 1857-58 में ऐसा क्या हुआ था कि सबने एक साथ मिलकर अंग्रजी शासन के विरोध में एक बड़ा संघर्ष आरम्भ कर दिया ?                
                  अंग्रेजी सरकार की सेना में शामिल भारतीय सैनिकों की एक बड़ी संख्या ने अंग्रजी शासन का विरोध करना शुरू कर दिया। अब यह सवाल उठता है कि वर्षों से उनके लिए काम करने वाले भारतीय सैनिकों ने ऐसा क्यों किया ? जैसे - जैसे पुराने भारतीय राज्य समाप्त होते गए। उन राज्यों के लिए काम करने वाले सैनिक भी बेरोजगार होते गए। इस स्थिति में उन्होंने अंग्रेजी सरकार में नौकरी कर ली, तब उनके लिए यह महत्वपूर्ण नहीं था कि राजा कौन है? भारत में अंग्रेजी सरकार की सेना में भारतीय सैनिकों की संख्या अधिक थी। परंतु अंग्रेजी सेना में काम करने वाले सिपाही खुश नहीं थे, उन्हें अंग्रेजी सेना के मुताबिक कम वेतन मिलता था। भारतीय सिपाही कितना भी अच्छा काम करें उन्हें हवलदार या सूबेदार से ऊंचा पद नहीं दिया जाता था। सेना के सारे बड़े पद अंग्रेजों के लिए सुरक्षित थे। इसके अलावा अंग्रेज अफसर और सिपाही भारतीय सैनिकों के साथ बहुत अपमानजनक व्यवहार भी करते थे। इन्हीं सब हालातों में सैनिकों के सामने एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई यह समस्या थी नए किस्म की इंफिल्ड राईफलें। इस राइफल में जो कारतूस होते थे, उस पर एक प्रकार का मोटा खोल चढ़ा होता था। खोल बनाने में गाय, सूअर एवं अन्य जानवरों की चर्बी का इस्तेमाल किया जाता था। कारतूस भरने के पहले उस खोल को दांत से काटकर हटाना पड़ता था। गाय हिन्दुओं के लिए पवित्र हैं, जबकि सूअर मुसलमानों के लिए वर्जित। सैनिकों को ऐसा एहसास होने लगा कि अगर वे इसे दांत से खोल को हटाते हैं तो उनका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। उनको विश्वास होने लगा कि अंग्रेजी सरकार उनका धर्म भ्रष्ट करने के लिए रायफलें और कारतूसेे लाए हैं। सैनिक अन्य कारणों से तो पहले से ही नाराज थे, और इस बात ने तो उन्हें एकदम से भड़का दिया।

            विद्रोह का प्रारंभ 

कारतूस  भरते सैनिक

                               मार्च 1857 में बैरकपुर छावनी के एक युवा सिपाही मंगल पांडे ने इस कारतूस और राइफल को लेने से इनकार कर दिया। उन पर दबाव डाला गया। तब उन्होंने अफसर पर हमला कर दिया उन्हें गिरफ्तार कर तुरंंत फांसी पर लटका दिया गया। इसके कुछ समय बाद 90 सैनिकों ने भी ऐसा ही किया तब उन्हें भी गिरफ्तार कर 10 वर्षों की सजा सुनाई गई। इस घटना ने छावनी के सभी भारतीय सैनिकों को और भड़का दिया।  10 मई 1857 को उन्होंने पूरी छावनी में विद्रोह कर दिया। उन्होंने अपने साथियों को छुड़ाकर कई अफसरों की हत्या कर दी और शस्त्रागार लूट ली। अब वे छावनी से बाहर आकर सरकारी खजाने को अपना निशाना बनाया। दिल्ली पहुंच कर उन्होंनेेे शहर में लूट-पाट तथा अंग्रेजी सरकार के प्रशासनिक केंद्रों को ध्वस्तत कर दिया। पूरे शहर में अराजकता फैल गई और अंग्रेज केेेे नियंत्रण से  दिल्ली 
शहर निकल गया।    
                   
                        जैसे जैसे दूसरे सैनिक छावनी एवं जमींदारों किसानों तथा व्यापारियों को इस घटना का पता चला वह लोग भी अंग्रेजी सरकार के विरोध में सक्रिय होने लगे। अंग्रेजी सरकार से असंतुष्ट सभी लोगों को बड़े अवसर की तरह दिखी।अगले कुछ महीनों में लगभग पूरे उत्तर भारत में अंग्रेजी सरकार का विरोध शुरू हो गया।प्रत्येक जगह सैनिकों ने विद्रोह प्रारंभ कर दिया। लोगों ने भी उनका समर्थन किया।इन विद्रोह का नेतृत्व या तो जमींदार या नवाब कर रहे थे या जिन राजाओं का राज्य अंग्रेजों ने हड़प लिया था।दिल्ली के बाद कानपुर, लखनऊ झांसी, आरा इत्यादि जगहों पर अंग्रेजी सरकार के प्रति विरोध की आग भड़क उठी।
तात्या टोपे
Rani Lakshmi Bai
                                                              

                        कानपुर में इस विद्रोह का नेतृत्व नानासाहेब लखनऊ में, बेगम हजरत महल जिनका राज्य अंग्रेजों ने हड़प लिया था, झांसी में रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने विद्रोही सैनिकों के साथ मिलकर अंग्रेजी सरकार को कड़ी चुनौती दी। बरेली में सिपाही वक्त खान ने भी एक सेना तैयार की एवं सैनिकों के समर्थन के लिए दिल्ली पहुंच गए। वीर कुंवर सिंह ने अपने साथियों के साथ मिलकर आरा में इस विद्रोह का नेतृत्व किया और आरा शहर को अंग्रेजी नियंत्रण से समाप्त कर दिया।

                               
                      25 अगस्त 1857 में  विद्रोहियों द्वारा जारी किए गए घोषणापत्र, आजमगढ़ घोषणापत्र के नाम से जाना जाता है। इस घोषणापत्र में जमींदारों,  व्यापारियों, भारतीय  सैनिकों, पंडित, मालवीयों बुनकरों आदि की रक्षा, सहायता ,  व्यापार की आजादी, शासन में ऊंचा पद तथा उनके साथ भेदभाव नहीं कि जाने का आश्वासन दिया गया। इस तरह से इस विद्रोह को दबा दिया गया।




(जरा सोचिए 1600 ई. में स्थापित एक व्यापारी कंपनी कैसे इतने बड़े साम्राज्य को अपने नियंत्रण में लेने में सफल रही। इसका मुख्य कारण था इनमें  आपसी तालमेल का अभाव का होना, हर राज्य दूसरों के इलाके हड़प कर अपने राज्य का विस्तार करना चाहते थे, एकता का अभाव था।
यदि आप भी इस विषय पर अपने विचार साझा करना चाहते हैं तो कॉमेंट बॉक्स में आपके विचार सादर आमंत्रित हैं।)

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