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भारतीय कांग्रेस का इतिहास

 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास




1857 के सैनिक विद्रोह के दमन के बाद भारतीय अब एक साथ संगठित रूप से अंग्रेजों का विरोध करना चाहते थे। जब तक अंग्रेज भारत से नहीं जाएंगे भारत भारतीयों का नहीं हो सकता है। इसी तरह अपने देश के प्रति लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने लगा और राष्ट्रवाद का जन्म हुआ।तब कई राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना हुई एवं सरकार विरोधी आंदोलन किए गए। भारत में राष्ट्रवादी भावना के परिणाम स्वरूप 28 दिसंबर 1835 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना मुंबई के गोकुल दास कॉलेज के हॉल में हुई, भारत के विभिन्न भागों से आए प्रतिनिधियों के द्वारा की गई।


कांग्रेस की स्थपना


                              कांग्रेस के नेताओं का मानना था कि भारत की सांस्कृतिक विभिन्नता को देखते हुए सावधानी पूर्वक राष्ट्रीय एकता की कोशिश की जाए। यह तय किया गया कि कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन बारी-बारी से देश के विभिन्न हिस्सों में आयोजित किए जाएंगे और अध्यक्ष उस क्षेत्र का ना हो जहां अधिवेशन हो रहा हो। कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष ब्योमेशचंद्र बनर्जी थे। कांग्रेस के शुरुआती नेताओं में दादाभाई नरोजी, शाह मेहता, बदरुद्दीन तैयब, जी. डब्ल्यू. सी. बनर्जी, आरसी दत्त और 1 साल बाद शामिल होने वाले सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे पढ़े-लिखे और दूरदर्शी व्यक्ति थे। कांग्रेस ने यह तय किया कि किसी प्रस्ताव को पारित करने में अल्पसंख्यकों के विचारों को ध्यान में रखा जाएगा। शुरू से राष्ट्रवादी नेता धर्मनिरपेक्षता के प्रबल पक्षधर थे। कांग्रेस ने तत्कालीन राजनीतिक विचारधाराओं, सामाजिक वर्गों और समूहों को अपने साथ मिलाकर राष्ट्रवाद को आंदोलन के रूप में स्थापित किया।


                         19वीं सदी के अंतिम दशक आते-आते कांग्रेस के ही बहुत सारे नेता ब्रिटिश शासन विरोधी राजनीतिक तौर तरीकों से असहमत दिखने लगे थे। कुछ नेताओं के विचार धाराओं में भी विभिन्नता दिख रही थी। इस तरह की विचारधारा का नेतृत्व बंगाल में विपिन चंद्र पाल, पंजाब में लाला लाजपत राय तथा महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक कर रहे थे। तिलक ने नारा दिया "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है मैं इसे लेकर रहूंगा।" सभी नेताओं ने गांव -गांव जाकर लोगों को संगठित किया तथा स्वराज के साथ-साथ स्वदेशी की बात बताई।




   बंगाल का विभाजन


लॉर्ड कर्जन ने राष्ट्रीय भावना को कमजोर करने के लिए 1905 में बंगाल के विभाजन का आदेश निकाला। उस समय बंगाल के अंतर्गत कई राज्य आते थे -जैसे बंगलादेश पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, झारखंड। अंग्रेजों का तर्क था कि ये प्रांत काफी बड़ा है अतः प्रशासनिक सुविधा के लिए बंगाल का विभाजन जरूरी है।लेकिन विभाजन का मुख्य मकसद था कि एकीकृत बंगाल जो कांग्रेस राष्ट्रीय आंदोलन का गढ़ था उसे सामुदायिक आधार पर विभाजित किया जाए। 


                भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कर्जन के इस कार्य का विरोध करने का विचार किया। 16 अक्तूबर 1905 को विभाजित लागू होने के दिन समूचे बंगाल में शोक दिवस मनाया गया। बंगाल के गलियों में "वंदे मातरम्" के नारे गूंज उठे।स्वदेशी आंदोलन में महिलाओं ने भी बढ़-चढ़कर सहभागिता निभाई। अब अंग्रेजी सरकार ने दमन का सहारा लिया। आम सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिए गए। अख़बारों वालों पर जुर्माना लगाया गया और राष्ट्रीय नेताओं को हिरासत में ले लिया गया। तिलक को राजद्रोह के आरोप में फंसाकर 6 वर्षों की कारावास की सजा दी गई। बंगाल के विभाजन को रोका न जा सका।




         भारत में सत्याग्रह


दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का सफल प्रयोग करने के बाद महात्मा गांधी 1915 में भारत लौटे। दक्षिण अफ्रीका में उनके संघर्षों एवं उनकी सफलता ने उन्हें भारत में काफी लोकप्रिय बना दिया था।बिहार के नील उत्पादक किसानों की स्थिति बहुत ही दयनीय थी। विशेषकर बिहार में गोरों द्वारा "तीनकठिया व्यवस्था" प्रचलित की गई थी। जिसमें किसानों को अपने भूमि की 3/20 हिस्से पर नील की खेती करनी होती थी। यह सामान्यतःउपजाऊ भूमि होती थी। किसान नील की खेती नहीं करना चाहते थे, क्योंकि इससे भूमि की उर्वरता कम हो जाती थी। नीलहे के इस अत्याचार से चंपारण की किसान त्रस्त थी।इसी समय 1916ई. में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में चंपारण के एक किसान राजकुमार शुक्ल ने सबका ध्यान इस समस्या की ओर आकृष्ट कराया और महात्मा गांधी से चंपारण आने का अनुरोध किया। जब गांधीज मोतिहारी चंपारण पहुंचे तो अंग्रेजी शासन ने उनकी उपस्थिति को जन शांति के लिए खतरा बताया और सरकार द्वारा उन्हें चंपारण छोड़ने का आदेश दिया गया। परंतु गांधी जी ने इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया गांधीजी के दबाव पर सरकार ने चंपारण "एग्रेरियन कमेटी" का गठन किया। इस कमेटी ने सिफारिश दी कि तीनकठिया व्यवस्था समाप्त कर दी जाए। और किसानों के अन्य कर भी माफ कर दिए जाए। कमेटी की सिफारिशों को 1919 के चंपारण एग्रेरियन एक्ट के रूप में पारित किया गया। गांधी जी ने इस आंदोलन में अपने सिद्धांत सत्य और अहिंसा को आधार बनाया था इसलिए इसे चंपारण सत्याग्रह कहा जाता है।




               रॉलेट एक्ट


प्रथम विश्व युद्ध के बाद उपजे असंतोष को दबाने के लिए अंग्रेजों ने दमन का सहारा लिया। उन्होंने मार्च 1919 में रॉलेट एक्ट नामक कानून बनाया। जिसमें संदेह के आधार पर किसी भी व्यक्ति को अनिश्चित समय के लिए गिरफ्तार कर लिया जाता था। गांधी जी ने रॉलेट एक्ट के विरोध में 6 अप्रैल 1919 को राष्ट्रीय अपमान दिवस मनाने का निर्णय लिया। राष्ट्रवादी विरोध एवं प्रदर्शन हुए। कई जगहों पर आंदोलन हिंसात्मक हो गई पंजाब के लोग विरोध प्रदर्शन के लिए 13 अप्रैल 1919ई.को बड़ी संख्या में जालियांवाला बाग (अमृतसर) में जमा हुए।                                    


      जालियांवाला बाग हत्याकांड :-


रौलट एक्ट के विरोध में हड़ताल के दौरान 9 अप्रैल 1919 को दो स्थानीय नेता डॉ सत्यपाल एवं किचलू को गिरफ्तार कर लिया गया। यह दोनों कांग्रेस के सदस्य थे। जालियांवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा बुलाई गई। जहां जिला मजिस्ट्रेट जनरल डायर ने बिना किसी चेतावनी के शांतिपूर्वक चल रही सभा पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी। सैकड़ों लोग मारे गए एवं हजारों की संख्या में लोग घायल हुए। इस नरसंहार के विरोध में रविंद्र नाथ टैगोर ने "नाइट" की उपाधि त्याग दी, गांधी जी ने "केसर- ए- हिन्द" की उपाधि त्याग दी। जालियांवाला बाग हत्या काण्ड ने राष्ट्रीय आंदोलन में एक नई जान फूंक दी।





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