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हिमांद्री तुंग श्रृंग से (जशंकर प्रसाद)


हिमांद्रि   तुंग   श्रृंग  से (जयशंकर प्रसाद)

हिमांद्रि   तुंग   श्रृंग  से जयशंकर प्रसाद



जयशंकर प्रसाद जीवन परिचय एवं उनकी रचनाएं


जयशंकर प्रसाद का जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के एक संपन्न वैश्य परिवार में 1889ई. में हुुआ था । इनके पिता का नाम देवी प्रसाद साहू था जो सुंघनी साहू के नाम से बहुत ही प्रसिद्ध थे। वह तंबाकू का व्यापार करते थे। बाल्यावस्था में ही पिता की मृत्यु हो जाने के कारण प्रसाद जी के परिवार को आर्थिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इसी कारण उन्हें आठवीं कक्षा उत्तीर्ण होने के बाद स्कूल छोड़ने पर विवश होना पड़ा। इसलिए प्रसाद जी अपनी शिक्षा घर पर ही रह कर जारी रखी। संस्कृत साहित्य के प्रति उनके मन में आरंभ से ही गहरा अनुराग था। अतः इन्होंने भाषा और साहित्य के साथ-साथ इतिहास और दर्शन का भी गंभीर अध्ययन किया। इनका जीवन निरंतर संघर्षरत रहा और अनेक प्रकार के पारिवारिक संकटों का सामना करना पड़ा।

                  

   प्रसाद जी अत्यंत सौम्य, शांत एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। वे परनिंदा और आत्मस्तुति दोनों से दूर ही रहते थे। उनके मनोविनोद के साधन थे शतरंज, बागवानी, शास्त्रचर्चा और कविता पाठ। काव्य कला के अलावा संगीतकला, चित्रकला और मूर्तिकला से भी उनका गहरा लगाव था। प्राचीन वस्तुओं के अध्ययन में भी उन्हें अत्यधिक आनंद की अनुभूति होती थी। यह कवि होने के साथ-साथ नाटककार उपन्यासकार और कहानीकार भी थे।


                       प्रसाद जी की आरंभिक काव्य रचनाएं ब्रज भाषा में लिखी गई है। आगे चलकर उन्होंने खड़ी बोली को अभिव्यक्ति का माध्यम बना लिया। इनकी रचनाओं में हिंदी के अलावा संस्कृत बंगला और परशियन भाषा का भी प्रभाव देखने को मिलता है। "कानन कुसुम" और "प्रेम पथिक" प्रसाद जी की प्रारंभिक रचनाएं हैं।



हिंदी साहित्य में जयशंकर प्रसाद छायावाद के चौथे स्तंभ के रूप में जाने जाते हैं। इनकी कविताएं अति मार्मिक है तथा इनकी रचनाओं में कला और दर्शन का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। इनकी अंतिम रचना “कामायनी” को माना जाता है। अनेक विद्वानों का मत है कि यह आधुनिक हिंदी का महाकाव्य है। परंतु आज हम जिस कविता पर चर्चा करने जा रहे हैं वह है "हिमाद्रि तुंग श्रृंग से " यह उनकी देशभक्ति कविताओं में से एक है। 


  हिमाद्रि तुंग श्रृंग से Lyrics



    हिमांद्रि   तुंग   श्रृंग  से

               प्रबुद्ध     शुद्ध     भारती......

              स्वयं   प्रभा   समुज्ज्वला

              स्वतंत्रता         पुकारती.......

             अमर्त्य  वीरपुत्र  हो , दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो,

             प्रशस्त पुण्य पथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो।

   असंख्य     कीर्ति    रश्मिया

           विकीर्ण  दिव्य  दाह – सी.......

           सपूत     मातृभूमि      के

           रुको    न   शूर   साहसी.........

          अराति सैन्य सिन्धु में, सुवाड़वागनी से जलो,

          प्रवीर  हो  जई   बनो,  बढ़े  चलो, बढ़े  चलो।



हिमांद्रि  तुंग  श्रृंग  से कविता की व्याख्या
 

प्रसाद जी की यह कविता भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लिखी गई थी। इस कविता के कारण प्रसाद जी को उस समय बड़ी प्रसिद्धि मिली थी। इस कविता के माध्यम से कवि ने देशवासियों को अपने राष्ट्र की सेवा के लिए प्रेरित किया और उन्हें राष्ट्र के लिए त्याग और बलिदान करने की सीख दी।
                वस्तुतः यह एक  प्रयाण गीत है जो कि प्रसाद जी के द्वारा लिखित ऐतिहासिक नाटक चंद्रगुप्त से लिया गया है। इस नाटक में यह गीत अलका नाम एक वीर युवती द्वारा देशवासियों में स्वदेश प्रेम की भावना को जागृत कर उन्हें यूनान की सेना का मुकाबला करने हेतु गाई जाती है। अलका भारत के निवासियों को देश के वीर सपूत कहकर पुकारती और उन्हें हिमालय की चोटी से आने वाली स्वतंत्रता की पुकार सुनने को कहती है। अलका  के अनुसार यह पुकार स्वयं प्रकाशित देवी की है जो वीरों को दृढ़ निश्चय के साथ देश की मर्यादा की रक्षा के लिए स्वतंत्रता के मार्ग पर आगे बढ़ने को कहती है। उसके अनुसार देश को आजाद कराना एक राष्ट्रीय कर्तव्य है और इस कर्तव्य पथ पर चलना सभी भारतीयों के लिए एक पुण्य का कार्य है।
वह देशवासियों से कहती है कि आजादी की राह में प्राणों की बाजी लगाना एक परम पुनीत कर्तव्य है जो जीवन को सार्थक बना देती है। अतः उन्हें स्वतंत्रता के कर्तव्य मार्ग पर निरंतर आगे बढ़ते जाना है, भले ही प्राण क्यों ना चली जाए।
      अलका के माध्यम से कवि आगे कहता है कि स्वतंत्रता का पथ देशवासियों के पूर्वजों की कीर्ति किरणों से आलोकित है। इस मार्ग पर चलते हुए उन्हें पूर्वजों के मान मर्यादा का भी ध्यान रखना है। जिन्होंने अपने प्राण देकर देश की आजादी को अक्षुण बनाए रखा। आगे कवि उन्हें अपना पथ प्रदर्शक स्वयं ही बनने की प्रेरणा देता है। अलका देशवासियों से स्पष्ट कहती है कि उन्हें किसी पथ प्रदर्शक का इंतजार नहीं करना चाहिए। बल्कि बिना देर किए शत्रुओं के सागर में आग बनकर धधक  पड़ना चाहिए। ताकि शत्रुओं का विनाश हो सके। कवि ओजपूर्ण वाणी में देशवासियों को सच्चा वीर बताते हुए उन्हें स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग पर भयमुक्त होकर निरंतर आगे बढ़ने की सलाह देता हैं। क्योंकि कवि के अनुसार विजय निश्चित है।





   


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