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भिक्षुक कविता खंड (निराला)


भिक्षुक कविता का काव्य सौंदर्य


           भिक्षुक कविता सूर्यकांत त्रिपाठी जी की पमुख रचनाओं में से एक है। निराला के काव्य कृतियों में हम स्पष्ट रूप देख सकते हैं कि उन्होंने विभिन्न विषयों पर कविताएं लिखी हैं। उनमें से एक है शोषित वर्ग। भिक्षुक समाज का एक ऐसा वर्ग है जिस पर इन से पहले के कवियों का ध्यान गया ही नहीं। किसी ने कभी कल्पना ही नहीं की कि कोई भिखारी भी कविता का नायक हो सकता है। परंतु निराला का सहानुभूति समाज के ऐसे वर्ग के लिए के लिए भी हैं जिसे समाज ने त्याग दिया, नकार दिया है। उन्होंने इस कविता में भिक्षुक के प्रति अपनी सारी सहानुभूति उड़ेल दी है। भिक्षुक कविता में कवि भिखारियों का करुण और यथार्थ चित्र खींचा है। यह कविता उनकी दूसरी प्रसिद्ध काव्यसंग्रह परिमल (1930) से उद्धृत है।

भिक्षुक कविता निराला




   प्रस्तुत है भिक्षुक कविता


वह आता___

दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

पेट– पीठ दोनों मिलकर हैं एक,

चल रहा लकुटिया टेक।

मुट्ठी भर दाने को–– भूख मिटाने को,

 मुँह फटी– पुरानी झोली  का फैलात ___

दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,

बाँए  से वे मलते हुए पेट चलते हैं,

और दाहिना दया– दृष्टि पाने की ओर बढ़ाएं।

 भूख से सूख ओठ जब जाते,

 दाता__ भाग्य–विधाता__ से क्या पाते?

घूँट ‌‌ ‌‌आँसुओं के पीकर रह जाते।

चाट रहे हैं जूठी पत्तल कभी सड़क पर खड़े हुए,

और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े  हुए।

ठहरो ! अहो मेरे हृदय में है अमृत मैं सींच दूँगा।

अभिमन्यु जैसा हो सकोगे तुम?

तुम्हारे  दुःख  मै  अपने  हृदय  में   खींच  लूँगा।





भिक्षुक कविता का संदेश


इस कविता में निराला जी ने भिक्षुक का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है। भिक्षुक कविता सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी द्वारा रचित है। यह कविता प्रगतिवादी विचारधारा से प्रभावित है। इस कविता में कवि भिक्षुक को देखकर आहत हो जाते हैं। 

Bhikshuk Kavita in Hindi



 कवि द्वारा यहां एक विवश, बेसहारा, लाचार भिखारी के आगमन का वर्णन किया गया है। भिखारी अपना आत्मसम्मान (दो टूक कलेजा) त्याग कर पश्चताप करता पथ (रास्ता) पर आ रहा है। अर्थात वह नहीं चाहता कि वह किसी के सामने  हाथ फैलाए। लेकिन वह भुख के कारण विवश है।



 आगे कवि उसकी दयनीय अवस्था का मार्मिक चित्रण करता है और कहता है कि उसकी पेट जो है पीठ से मिल गई है। देखने से ही लगता है कि उसने कई दिनों से भोजन नहीं किया है। वह अपनी लाठी (लकुटिया) के सहारे  धीरे–धीरे चल रहा है।




 
 बस मुट्ठी भर दाने के लिए वह निकला है जिससे उसकी भूख मिट जाए। उसके पास एक झोली है जो कि पुरानी है, फट चुकी है। उसी को वह फैलाता है।





भिखारी को अपना स्वाभिमान त्यागना पड़ता है, जिससे उसके हृदय के दो टुकड़े हो गए हैं। वह अपने भाग्य को कोसता हुआ पथ पर आ रहा है।






भिक्षुक के साथ दो बच्चे भी हैं जो हमेशा अपना हाथ फैलाए रखते हैं। उनकी ये आदत सी हो गई है कि वो  बाएं हाथ से अपने पेट को मलते चलते हैं, और दाएं से किसी की करुण दृष्टि को तरसते हैं कि कोई इस दृश्य को देखकर उनपर दया कर दे।





जब उनके होठ भूख के कारण एकदम से सुख जाते हैं तो वे दाता यानी जो मनुष्य देने वाले हैं, भाग्य विधाता यानी ईश्वर से कुछ पाते भी नहीं हैं। बस वे आँसुओ के घूँट पीकर रह जाते हैं। 


भिक्षुक कविता का अर्थ




कवि देखता है कि उनकी इतनी दयनीय स्थिति है कि किसी के द्वारा फेंके गए अवशिष्ट भोजन को वे चाट रहे हैं, और उससे वी दर्दनाक अवस्था यह है कि उस अवशिष्ट भोजन को भी झपटने के लिए कुत्ते अडिग हैं।





 अंतिम पंक्ति में निरला जी कहते हैं कि ठहरो मेरे हृदय में जो अमृत है मैं इससे तुम्हें सींच दूँगा। मैं तुम्हारी मदद करूँगा। परंतु क्या तुम अभिमन्यु जैसे बन पाओगे अर्थात जो साहस अभिमन्यु ने परिस्थितियों से उभरने के लिए  दिखाया था। वह तुममें भी दिखनी चाहिए। तो मैं तुम्हारे जो भी दु:ख हैं अपने हृदय में खींच लूंगा। अर्थात जो ये भीख मांगने को प्रथा है उसे छोड़ तुम्हे भी अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करनी होगी।



  यह सत्य है कि निराला ने आजीवन, गरीबों , दिन     दुखियों की मदद की। 









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