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रामधारी सिंह दिनकर

              रामधारी सिंह  दिनकर  का जीवन परिचय


  दिनकर की कविता का मूल स्वर है क्रांति। यह उत्तर छायावाद के प्रमुख कवि हैं। इनकी रचनाओं में कोमलता और सनिग्धता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 ई. में बिहार प्रांत के बेगूसराय जिला के सिमरिया गांव में हुआ था। इनकी माता का नाम मनरूप देवी व पिता का नाम रवि सिंह था।
रामधारी सिंह दिनकर बायोग्राफी


                            इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में हुई थी। 1928 ई. में हाई स्कूल से मैट्रिक तथा 1932 ई.में पटना कॉलेज से इतिहास में बी. ए. ऑनार्स किया। दिनकर की पहली रचना 1928 ई. में प्रकाशित हुई थी। दिनकर की कविता का प्रमुख लक्ष्य था, जनमानस में नवीन चेतना को उत्पन्न करना। जब लोगों के भीतर राष्ट्रभक्ति की भावना जोरों पर थी, तब दिनकर ने उसी भावना को अपनी कविता के माध्यम से आगे बढ़ाया। दिनकर जी जनकवि थे। उनकी इसी लोकप्रियता के कारण उन्हें "राष्ट्रकवि" के नाम से सम्मानित किया गया। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया। भारत सरकार की ओर से पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया था।



              रामधारी सिंह दिनकर की देशभक्ति कविता...
           " हिमालय"
हिमालय कविता भारत चीन के युद्ध के समय दिनकर जी ने संसद भवन में गाया था। राष्ट्रकवि दिनकर की हिमालय कविता में वर्तमान समय में जकड़ी हुई भारतीय संस्कृति की जर्जर अवस्था के प्रति असंतोष की भावना परिलक्षित हुई है। इस कविता में कवि हिमालय को संबोधित कर कहता है-  हे पर्वतराज हिमालय! तुम दिव्यता की साकार मूर्ति हो, तुम्हारा स्वरूप ही विशाल नहीं अपितु तुम्हारा गौरव भी विराट है! तुम भारत माता के मस्तक पर चमकने वाले हिम किरिट हो।

                  दिनकर जी आगे कहते हैं कि मेरे पर्वतराज! तुमने यह कैसी अखंड समाधि लगा ली है, तुम भला किस गूढ़ समस्या का समाधान ढूंढ रहे हो? हे यतिवर! जरा क्षण भर के लिए अपने नेत्रों को खोलो क्योंकि दु:ख से व्याकुल होकर आज पूरा राष्ट्र तुम्हारे चरणों में तड़प रहा है। मातृभूमि की दयनीय अवस्था से क्षुब्ध कवि पर्वतराज को संबोधित कर पुनः कहता है- विपत्ति के समय में जिस देश की सीमा पर सजग प्रहरी रूप में खड़े होकर तुम ने देश के वीरों का आवाहन किया, आज वह फिर से तुम्हें त्रस्त होकर पुकार रहा है। जिस पुण्य भूमि भारत की तुमने रक्षा कि, तुमने जिसे आश्रय दिया, आज उस पर भीषण संकट आन पड़ा है। इधर तुम ध्यानस्त ही रहे और उधर सारा देश वीरान हो गया। 



                        अंत में कवि कहता है कि आज तो अवध में राम के शील, पौरूष और मर्यादा की परछाई भी नहीं रही, वृंदावन की कुंज गलियों में कृष्ण की बंसी की तान भी नहीं रही तथा मगध में अशोक और चंद्रगुप्त मौर्य की अतुल्य वीरता और शौर्य भी नहीं रहा। 
                                    हे भारतीय गौरव के सजग प्रहरी, विशाल पर्वतराज हिमालय यदि सत्यनिष्ठ और त्यागमूर्ति युधिष्ठिर स्वर्ग में रहना चाहते हों तो उन्हें खुशी से स्वर्ग जाने दे परंतु गांडीवधारी  वीर अर्जुन और गदाधारी बलशाली भीम को तू देश की रक्षा हेतु पुनः इस देश को लौटा दे। आज का नया युग शंखनाद करके तुझे जगा रहा है। हे विराट तपस्वी, आज तू अपनी समाधि तोड़कर जग जा।

                   हिमालय कविता
     रामधारी सिंह दिनकर

    मेरे नगपति !      मेरे विशाल !
        साकार  दिव्य   गौरव    विराट,
        पौरूष  के    पूंजीभूत    ज्वाल ! 
        मेरी  जननी  के   हिम  - किरीट !
        मेरे     भारत   के   दिव्य    भाल !
                           मेरे नागपति !    मेरे विशाल!
        
        
       युग - युग अजय निर्बन्ध मुक्त,
       युग युग सूची गर्वोन्नत  महान,
       निस्सीम   व्योम  में  तान रहा
       युग  से किस महिमा का वितान ?
  
        कैसी अखंड यह चिर समाधि ?
        यतिवर ! कैसा यह अमिट ध्यान ?
        तू    महाशून्य    में   खोज   रहा
        किस  जटिल समस्या का निदान ?
        उलझन  का  कैसा  विषम जाल ?
                              मेरे  नगपति !     मेरे विशाल !

        ओ ,  मौन  तपस्या - लीन  यति     
        पल  भर  को  तो   कर   दृगुन्मेष !  
        रे    ज्वालाओं   से   दग्ध,   विकल
        है   तड़प   रहा   पद   पर    स्वदेश ।
        सुखसिंधु,     पंचनद ,       ब्रम्हपुत्र
        गंगा,   यमुना   की    अमिय- धार
        जिस  पुण्यभूमि   की  ओर   बही
        तेरी   विगलित   करुणा    उदार,  

         जिसके  द्वारों  पर  खड़ा   कांत   
         सीमापाति !   तूने   की    पुकार,
         'पद - दलित   इसे  करना  पीछे 
         पहले   ले   मेरा    सिर   उतार ' ।
         उस  पुण्यभूमि  पर  आज  तपी
         रे,  आन  पड़ा   संकट    कराल ,
         व्याकुल   तेरे  सूत   तड़प    रहे ,
         डँस  रहे  चतुर्दिक  विविध  व्याल
                           मेरे   नगपति !      मेरे  विशाल !

        कितनी  मणियां  लूट  गई ?  मिटा
        कितना    मेरा     वैभव     अशेष ! 
        तू   ध्यान-  मग्न  ही   रहा ,   इधर  
        वीरान    हुआ    प्यारा      स्वदेश !

        किन  द्रौपदियों  के  बाल    खुले ?
        किन-किन कलियों  का अंत  हुआ?
        कह   हृदय   खोल   चित्तौड़ !  यहाँ 
        कितने  दिन  ज्वाल- वसंत   हुआ ?
   

        पूछ   सिकता-कण  से   हिमपति !
        तेरा       वह    राजस्थान   कहाँ?
        वन - वन  स्वतंत्रता - दीप   लिए!
        फिरनेवाला      बलवान    कहाँ?
      
        
        तू  पूछ  अवध  से ,   राम  कहाँ? 
        वृंदा !   बोलो   घनश्याम    कहाँ ?
        ओ   मगध ,  कहां  मेरे   अशोक ?
        वह   चन्द्रगुप्त   बलधाम   कहाँ ?


        पैरों   पर    हीं     है     पड़ी   हुई
        मिथिला  भिखारिणी   सुकुमारी ,
        तू    पूछ   कहाँ     इसने     खोई
       अपनी   अनंत   निधियाँ    सारी ?

        री   कपिलवस्तु !   कह,  बुद्धदेव
        के   वे   मंगल   उपदेश     कहाँ?
        तिब्बत ,  इरान ,  जापान ,  चीन
        तक   गए    हुए     संदेश  कहाँ ?
   
         वैशाली    के    भग्नावशेष   से
         पूछ    लिच्छवी    शान    कहाँ ?
         ओ   री  उदास  गंडकी !   बता
         विद्यापति   कवि  के  गान  कहाँ?

          तू   तरुण   देश   से     पूछ   अरे,
          गूँजा  यह    कैसा   ध्वंस -  राग
          अंबुधि -  अतस्तल -  बीच  छिपी
          यह   सुलग   रही    है   कौन   आग?

          प्राची  के   प्रांगण - बीच    देख,
          जल रहा स्वर्ण-युग-अग्नि-ज्वाल ,
           तू   सिंहनाद    कर   जाग  तपी !
                                        मेरे नगपति ! मेरे विशाल !

             रे,  रोक  युधिष्ठिर  को  न  यहाँ,
             जाने    दे   उनको   स्वर्ग   धीर,
             पर   फिरा  हमें   गांडीव -  गदा
             लौटा   दे   अर्जुन  -  भीम   वीर।

             कह  दे  शंकर   से,  आज   करें
             वे प्रलय - नृत्य   फिर  एक बार।
             सारे    भारत    में    गूँज    उठे,
             'हर -हर -बम' का फिर महोच्चार।

             ले   अँगड़ाई ,   उठ   हिले  धरा ,
             कर   निज विराट  स्वर  में  निनाद ,
             तू      शैलराट !       हुँकार   भरे,
             फट   जाय   कुहा ,   भागे  प्रमाद।

              तू   मौन   त्याग ,   कर  सिंहनाद
              रे तपी !  आज  तप का  न  काल।
              नव - युग -  शंखध्वनि  जगा  रही,
               तू  जाग ,  जाग     मेरे    विशाल !
          

          






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